साम्प्रदायिक हिंसा में जल रहे उत्तर प्रदेश के सम्भल में जहां एक ओर नागरिक मिल-जुलकर शांति की राह ढूंढ रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी की सरकार अब भी कठोर रूख अपनाये हुए है। उसने तय किया है कि कथित दंगाइयों के पोस्टर शहर के चौक-चौराहों पर लगेंगे। हिंसा, आगजनी, पत्थरबाजी आदि की घटनाओं के बीच यहां न केवल कर्फ्यू लगाया गया बल्कि पुलिस की फायरिंग में 5 लोगों की मौतें भी हुई हैं। ये सभी अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। इंटरनेट बन्द है। हिंसा को रोकने के प्रति यदि सरकार वास्तव में संजीदा है तो उसे सर्वप्रथम नेटबन्दी हटानी चाहिये और शांति बहाली के प्रयासों को प्रोत्साहन देना चाहिये। हालांकि इसकी गुंजाइश कम ही है क्योंकि ऐसी घटनाएं भाजपा के धु्रवीकरण के एजेंडे को आगे बढ़ाती हैं। आशंका है कि सम्भल की तज़र् पर फायदा लेने के लिये भाजपा नये शहरों को निशाना न बनाने लगे।
अभी खत्म हुए राज्य के विधानसभा उपचुनाव के नतीजों में 9 में 7 सीटें जीतकर भाजपा के हौसले बुलन्द हैं। लोकसभा में जिस प्रकार वहां कांग्रेस व समाजवादी पार्टी के गठबन्धन ने उसे पटकनी दी थी, उसके बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुरझाये हुए थे। इस घटना से वे जोश में लौटे हुए दिखते हैं। वैसे यहां अगले विधानसभा चुनाव में तकरीबन सवा दो वर्षों की देर है लेकिन उत्तर प्रदेश इतना बड़ा राज्य है और उस पर धीरे-धीरे जिस तरह से सपा-कांग्रेस प्रभाव डाल रहे हैं, उससे योगी को धु्रवीकरण का माहौल पूरे राज्य में बनाने के लिये इतना समय तो चाहिये ही होगा। बहुत से शहरों को सम्भल बनाये बिना भाजपा की वहां वापसी सम्भव नहीं होगी। फिर, लोकसभा चुनाव के नतीजों ने योगी को जिस प्रकार से नरेन्द्र मोदी के पीछे कर दिया है, तो उन्हें वापस रेस में आने के लिये कुछ बड़े प्रयोग करने ही पड़ेंगे जो सम्भल जैसे होने चाहिये। अब यह सपा और अन्य विरोधी दलों का फज़र् है कि वे सम्भल में शांति प्रयासों के लिये तो सक्रिय हों ही, दंगों में पीड़ित लोगों के साथ जाकर बैठें और वहां राहत और मदद प्रदान कर अपना विरोधी दल होने का दायित्व निभायें।
उप्र के शहरों को सम्भल बनाने की आशंका अब अधिक बलवती हो गयी है क्योंकि वहां की शाही मस्जिद का सर्वे कराने की मांग को लेकर जिस प्रकार से दंगा फैला है वही फार्मूला अब राज्य भर में आजमाया जा सकता है। उधर वक्फ़ बोर्ड पर जो संयुक्त संसदीय समिति बिठाई गयी है, उसकी सिफारिशें यदि भाजपा की विचारधारा और मंशा के अनुकूल आती हैं तो, जिसके पूरे-पूरे अनुमान हैं, हर बड़े शहर से लेकर कस्बों तक की मस्जिदों की ज़मीनों को लेकर मुकदमेबाजी शुरू हो सकती है। कहना न होगा कि ये सिविल के मामले होंगे जो ज्यादातर कानून की बजाय बाहुबल एवं सरकारी प्रश्रय के जरिये निपटाये जायेंगे।
न्यायालय की इस मोड़ पर महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। थोड़ा पीछे जायें तो, सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि को लेकर सुनाया गया फैसला देश भर में ऐसे सभी विवादों को खत्म कर देगा। हालांकि उस वक्त भी कई समझदारों ने चेताया था कि ऐसा नहीं होगा बल्कि अन्य मंदिरों के विवाद भी सतह पर आ जायेंगे या निर्मित किये जायेंगे। रामजन्मभूमि का मामला हल होने के पहले ही काशी और मथुरा की मस्जिदों की बातें तो हो ही रही थीं, आशंका है कि कई शहरों की महत्वपूर्ण मस्जिदों को विवादग्रस्त बनाया जायेगा जो सियासी मकसद से ही होगा। सम्भल मस्जिद के पुरातात्विक सर्वे की मांग भी इसी राजनीतिक जाल का हिस्सा है। सम्भल को अगर न सम्हाला गया और इसमें सियासी जीत की गंध मिल गयी तो इस प्रयोग को अन्यत्र दोहराने में वक्त नहीं लगेगा; क्योंकि भाजपा को केवल उत्तर प्रदेश में सफलता नहीं चाहिये वरन सभी राज्यों में चाहिये होगी।
लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटों में गिरावट आने और उसकी सरकार के दो दलों पर आश्रित हो जाने के बाद उम्मीद थी कि भाजपा हिन्दू-मुस्लिम एजेंडा को छोड़कर वास्तविक मुद्दों पर उतर आयेगी लेकिन अब अल्पसंख्यकों के खैरख्वाह माने जाने वाली दोनों पार्टियों ने, जिनके समर्थन पर मोदी सरकार टिकी हुई है, जिस प्रकार से चुप्पी साध रखी है, उससे स्पष्ट है कि मोदी और भाजपा की राह फिर से आसान बन गयी है।
आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री तथा वहां की तेलुगु देसम पार्टी के चीफ चंद्रबाबू नायडू और बिहार के सीएम तथा जनता दल यूनाइटेड के सुप्रीमो नीतिश कुमार, जिस तरह से मोदी ने दोनों को साधे रखा है, नायडू-नीतीश ने सम्भल सहित ऐसे तमाम मुद्दों पर बोलना छोड़ दिया है। इसलिये इसी सोमवार से प्रारम्भ हुए संसद के सत्र में मोदी का रौब-दाब फिर से दिखने लगा है जो मौजूदा लोकसभा के शुरुआती सत्र में गायब हो चुका था।
इस बीच जमीयत उलेमा-ए-हिंद के वकील ने सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार से दरख्वास्त की है कि 1991 के प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप एक्ट के अंतर्गत धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षणों पर तत्काल रोक लगाई जाये। इस अधिनियम के तहत 1947 वाली स्थिति को बनाये रखने का प्रावधान है- रामजन्मभूमि को छोड़कर। शीर्ष न्यायालय जो भी करेगा, वह बहुत महत्वपूर्ण होगा।